लोकपाल से क्या बदलेगा

संसद के दोनों सदनों से लोकपाल विधेयक ध्वनि मत से पारित हो गया है, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर प्रथम और द्वितीय श्रेणी के अधिकारी भी आएंगे। इसी के साथ राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति का रास्ता भी साफ हो गया है, लेकिन यह काम विधानमंडलों द्वारा होगा। लोकपाल को आठ सदस्यों की समिति नियुक्त करेगी, जिस पर राष्ट्रपति स्वीकृति देंगे। राज्यों में लोकायुक्त पर विधानमंडलों की सहमति के बाद राज्यपाल गठन की प्रक्रिया पूरी करेंगे। दावा किया जा रहा है कि 45 वर्षों तक लोकतंत्र की मजबूती के लिए जिस व्यवस्था की स्थापना अभी तक नहीं हो पाई थी, वह 2011 से चल रहे अन्ना आंदोलन के फलस्वरूप पूरी हो गई है, लेकिन इसे सर्वसम्मति पर आधारित इसलिए नहीं कहा जा रहा, क्योंकि संसद में तीसरे सबसे बड़े दल समाजवादी पार्टी ने इसका विरोध किया था।

संसद से पारित हुए लोकपाल विधेयक का अन्ना हजारे ने जहां समर्थन किया, वहीं उस आंदोलन में उनके सहयोगी रहे अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी का गठन कर, चुनाव लड़कर विधानसभा में 28 सीटें प्राप्त कीं और राज्य विधानसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद अब वह सरकार बनाने की प्रक्रिया में हैं। अरविंद केजरीवाल ने संसद से पारित इस लोकपाल विधेयक को जोकपाल कहा है। उनके तमाम साथी भी उनकी राय से सहमत हैं। उन सब का कहना है कि इससे न तो भ्रष्टाचार खत्म होगा और न यह उस प्रारूप के अनुकूल ही है, जिसे लेकर 2011 में आंदोलन चलाया गया था।

लोकपाल विधेयक की स्वीकृति देश के लगभग सारे राजनीतिक दल कर रहे हैं। उनका तर्क है कि लोकतंत्र के लिए इस प्रकार का एक संस्थान बहुत आवश्यक है, जो उसे पाक-साफ बनाए रखने में मददगार हो। इसलिए लोकपाल को बड़ी आशा भरी नजरों से देखा जा रहा है। लेकिन अन्ना हजारे यह भी कह रहे हैं कि इससे भ्रष्टाचार केवल 40 से 50 प्रतिशत ही कम होगा, क्योंकि यह प्रयास उसकी समाप्ति के लिए नहीं, बल्कि उसे कम करने के लिए ही किया जा रहा है। भ्रष्टाचार व्यवस्थाजन्य दोष है, जो व्यवस्था में बड़े नीतिगत, व्यावहारिक और स्वीकार्य परिवर्तन के बिना संभव नहीं है।

वस्तुतः यह स्पष्ट हो गया है कि जब से हमने भूमंडलीकरण को स्वीकार किया है, देश में भ्रष्टाचार का अनुपात निरंतर बढ़ता ही गया है। इसी के साथ जब लोकपाल आंदोलन चल रहा था और उसके घेरे में सभी सरकारी कर्मचारियों को लाने की बात हुई थी, तब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश रहे सज्जन ने, जो प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष भी हैं, यह सवाल उठाया था कि क्या राज्य नामक संस्था और उसकी सर्वोच्चता का सिद्धांत निरर्थक हो गया है और क्या वैकल्पिक व्यवस्था की स्थापना आवश्यक हो गई है, ताकि अपेक्षित लक्ष्य पूरा किया जा सके। इस प्रकार यदि समाज में दोहरी व्यवस्था का सिद्धांत लागू होगा, तो उसके परिणाम क्या होंगे?

भ्रष्टाचार, बेईमानी, दगाबाजी, अनुचित लाभ, समाज और देशद्रोह-ये आज भी दंडनीय अपराधों की ही श्रेणी में आते हैं, जिनका नियंत्रण राज्य करता है। संविधान निर्माण के समय यह दायित्व केंद्र को सौंपने के बजाय राज्यों के अधिकार में रखा गया था। अब लोकपाल नाम से एक अलग राष्ट्रीय संस्था बनाई जा रही है। कानून में भले ही लोकपाल के खिलाफ महाभियोग लगाने की व्यवस्था हो और इस पर अंतिम निर्णय संसद का दो तिहाई बहुमत करेगा, लेकिन इसका नियमन और नियंत्रण तो सरकार से परे ही होगा, जिसके अधीन केंद्रीय जांच ब्यूरो भी होगा और जांच एजेंसियां भी। इन सबका बोझ राज्य की व्यवस्था पर ही पड़ेगा। जहां तक भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त समाज का प्रश्न है, तो प्रश्न उठता है कि वह कौन-सा वर्ग और समुदाय है, जो अभियुक्त बनकर जांच के घेरे में न हो और जो वर्तमान व्यवस्था में जेलों में न हो। सबसे पवित्र और स्वस्थ तो न्यायपालिका मानी जाती है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायाधीश भी अपराधों के घेरे में हैं। इसी प्रकार नेता, मंत्री और विभिन्न संस्थाओं में भी यह दोष निरंतर बढ़ता जा रहा है। कार्यपालिका को भी, जिसमें सेना और सुरक्षा बल भी हैं, अपने कर्तव्यों का निर्वहन न करने का दोषी पाया गया है।

जितने भी बड़े मामले हों, वह चाहे 2जी घोटाला हो या कोलगेट मामला या अरबों के दूसरे घोटाले, सभी में बड़े अधिकारियों का हाथ पाया गया है। जहां निर्वाचित लोग, जिन्हें जनभावनाओं का सामना करना पड़ता है, अपराधी हो सकते हैं, वहीं प्रतिस्पर्द्धा और चयन पद्धति से आए स्वीकार्य लोग भी इस प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हैं। यही कारण है कि सर्वोच्च सेवाओं में भी यह विद्यमान है। सेना के बड़े अधिकारी देशद्रोह के कार्यों में गिरफ्तार हुए हैं और उन पर भी मुकदमे चले हैं। जिस समानांतर व्यवस्था की नई परिकल्पना की जा रही है, आखिर उसके लिए भी तो लोग इसी समाज से आएंगे।

इसलिए लोकपाल जैसी नई संस्था पर हम चाहे जितनी भी उम्मीद करें, उसका क्रियान्वयन तो इसी व्यवस्था में जन्मे, बढ़े और चयनित लोग करेंगे। दोहरी व्यवस्था का इतना बड़ा बोझ हमारी अर्थव्यवस्था को कितना प्रभावित करेगा? साथ ही यह प्रश्न भी उठेगा कि भावी व्यवस्था का संचालन निर्वाचित लोग करेंगे या चयनित। ऐसे में, यह कल्पना या उम्मीद बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं है कि लोकपाल के आने से चीजें एकाएक बदल जाएंगी।

 

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