लोकतंत्र की नई भाषा गढ़ती AAP

राजनीति अगर बदल रही है, तो राजनीतिक भाषा क्यों नहीं बदलेगी? अगर बिना शर्त समर्थन को राजनीति कहेंगे, तो सशर्त राजनीति को अलोकतांत्रिक कैसे कह सकते हैं? बिना शर्त समर्थन कोरा राजनीतिक धोखा है। समर्थन या तो होता है या नहीं होता है। मगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी बिना शर्त या सशर्त समर्थन के विवाद में पड़ी हुई हैं।

दिल्ली ने स्थापित राजनीति के खिलाफ जो मत दिया है, उसका कोई हल निकलता नहीं दिख रहा। जनता ने दिल्ली के नेताओं की राजनीति बहुत पढ़ और देख ली है। उसकी आवाज राजनेताओं को सुननी पड़ेगी, क्योंकि दिल्ली ने देश की बदलती राजनीति का बिगुल बजा दिया है। सड़क पर बेशक विधानसभा न बैठती हो, लेकिन जनता ने अब विधानसभा में सड़क के आम आदमी को बैठने का जनमत दिया है। उसने माना है कि सड़क पर चलने वाला ही सेवा की सामाजिकता समझ सकता है। लोकसेवा ही लोकतंत्र में राजनीतिक धर्म है। राजनीति उतनी बुरी नहीं होती, जितना स्वयंभू राजनेता उसे बना देते हैं। जो सांसद जंतर-मंतर पर जमा जनता को संसद की दंभी दुहाई देते थे, आज जनता ने उन्हें ही सड़क पर खड़ा कर दिया है।

दिल्ली मतदान के संदेश तो यही कहते हैं कि नई राजनीति को जनता ने खुले मन से स्वीकारा है। राजनीतिक दलों को राजनीति का नया पहलू दिखाने के लिए ही इस तरह का मत जनता ने दिया है। रामलीला मैदान पर जमा अन्ना समर्थकों को भीड़ मानने की गलती इन्हीं नकचढ़े नेताओं ने की थी। अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक मुद्दे सत्ता के मद में मस्ताए दोनों दलों के नेताओं को बेवजह लगे थे। उन्हीं मुद्दों को अब दो साल बाद जनता का मत मिला है। इन नेताओं की ताकत को रामलीला मैदान में ललकारा गया था। दिल्ली चुनाव में जनता ने नेताओं से उनकी राजनीतिक ताकत छीन ली है।

दिल्ली में सरकार बनाने के समीकरण की गुंजाइशें नाकाम दिख रही हैं। सरकार बनाने की जल्दी में कोई पार्टी नहीं दिखना चाहती। आप ने कांग्रेस के बिना शर्त समर्थन पर सशर्त समर्थन की मांग रख दी है। पर यह साफ है कि दिल्ली का जनमत अन्य राज्यों की तरह कांग्रेस के खिलाफ है। लेकिन जहां मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जनमत भाजपा के पक्ष में गया है, वहीं दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाली एक पार्टी पर लोगों ने भरोसा जताया। वैसे तो दिल्ली में भी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ही है; हालांकि उसे बहुमत नहीं मिला, पर लोकसभा चुनाव के लिए तैयारी करने और आप को परेशानी में डालने के लिए उसने सरकार बनाने की कोशिश नहीं की।

आप भले ही दूसरे नंबर पर रही, लेकिन कई जगह उसके उम्मीदवार मामूली अंतर से हारे हैं। बेहतर होता कि परिणाम आने के बाद ही वह विपक्ष में बैठने का संकेत देती। इससे उसे भी सत्ता राजनीति के तौर-तरीके जानने का अवसर मिलता। आंदोलन करने और शासन चलाने में फर्क है। लेकिन पर्याप्त अनुभव न होने के कारण वह दोनों बड़ी पार्टियों के जाल में फंस गई। हालांकि शुरुआती संशय के बाद अब वह सरकार बनाने का संकेत दे रही है। पर बेहतर होता कि भाजपा सरकार बनाती और जितने भी समय सत्ता में रहती, जनता को रिझाने की कोशिश करती।

यह इसलिए भी कि खासकर दिल्ली में अब कोई भी सरकार मनमाना रवैया नहीं अपना सकेगी। अगर भाजपा बहुमत का जुगाड़ कर सरकार बनाती, तो विपक्ष के रूप में उसका सामना आप और अरविंद केजरीवाल से होता। वैसे में भाजपा के लिए भी ढर्रे की राजनीति करना संभव नहीं होता। अगर फिर से चुनाव होते हैं, तो भाजपा के सामने खतरा रहेगा कि वह आप को पीछे छोड़ते हुए अभी की तुलना में ज्यादा सीटें ला सकती है या नहीं। पर दिल्ली में यदि फिर से चुनाव होते हैं, तो उसके खर्च का बोझ जनता को ही उठाना होगा।

लेकिन कुछ उम्मीदें अब आप से भी है। चुनावी राजनीति में उतरने के बाद अब उसे अपने तौर-तरीके बदलने होंगे। कांग्रेस और भाजपा पर केवल आरोप लगाने से काम नहीं चलेगा। नकार की राजनीति आंदोलन में रहकर ही अच्छी लगती है। अब आप से सकारात्मक राजनीति की उम्मीद है।

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